महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग-प्रकाशन समिति
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3 , बिहार (भारत)
* [इनकी वाणी में ‘घटरामायण’ ग्रन्थ के भी उद्धरण सम्मिलित हैं; परन्तु घटरामायण में वर्णन है कि "यह ग्रन्थ सात काण्ड रामायण (रामचरितमानस) के कर्त्ता गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का बनाया हुआ है और उन्होंने इसे सात काण्ड रामायण बनाने के पहले ही बनाया।" परन्तु इस ग्रन्थ का प्रचार तुलसी साहब के मन्दिर (शहर हाथरस, जिला अलीगढ़) से ही हुआ है, इसलिए इसके कर्ता, तुलसी साहब को ही लोग जानते हैं। मेरे विचार में यह ग्रन्थ गोस्वामी तुलसीदासजी कृत और ‘रामचरितमानस’ के पहले का बना प्रतीत नहीं होता। इसके अन्दर की युक्तियुक्त, सत्य प्रतीत होनेयोग्य बातें सन्त तुलसी साहब की हैं-विश्वास करनेयोग्य है; क्योंकि तुलसी साहब के ऐसे सच्चे सन्त के सत्य, युक्तियुक्त बातें ही कही जानेयोग्य हो सकती हैं। इसीलिए मैंने ‘घटरामायण’ के उद्धरणों को सन्त तुलसी साहब की वाणी के अन्दर रखा है।]
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सत्संग-योग, चतुर्थ भाग (गद्य 34 + पद्य 40)
पारा 1 से 10 तक 01. सन्तमत किसे कहते हैं ? सन्तमत की मूल भित्ति उपनिषद् के वाक्य ही हैं 02. सुरत-शब्द-योग ही सन्तमत की विशेषता है। नाम-भजन तथा ध्वन्यात्मक सारशब्द का भजन एक ही है- 03. सारे सान्तों के पार में एक अनन्त अवश्य ही है। यह एक और अनादि है, यह जड़ातीत, चैतन्यातीत अचिन्त्यस्वरूप है, मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, यही सन्तमत का परम अध्यात्म-पद है । अपरा और परा प्रकृतियाँ पारा 11 से 20 तक 03. सारे सान्तों के पार में एक अनन्त अवश्य ही है। यह एक और अनादि है, यह जड़ातीत, चैतन्यातीत अचिन्त्यस्वरूप है, मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, यही सन्तमत का परम अध्यात्म-पद है । 04. अपरा और परा प्रकृतियाँ , अंशी और अंश, आत्म-अनात्म तथा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विचार पारा 21 से 30 तक 05. कारण-महाकारण के विचार, परम प्रभु की प्राप्ति के बिना कल्याण नहीं 06. क्षर-अक्षर का विचार, परम प्रभु में मौज हुए बिना सृष्टि नहीं होती । मौज कम्पमय है- आदिशब्द सृष्टि का साराधार है पारा 31 से40 तक 06. क्षर-अक्षर का विचार, परम प्रभु में मौज हुए बिना सृष्टि नहीं होती । मौज कम्पमय है- आदिशब्द सृष्टि का साराधार है 07. अनादिनाद का ही नाम रामनाम, सत्यनाम, ॐकार है, शब्द का गुण, सृष्टि के दो बड़े मंडल, अपरा प्रकृति के चार मण्डल, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के मण्डलों का सम्बन्ध, भिन्न-भिन्न मण्डलों के केन्द्र, अनन्त, अनाम, पिण्ड-ब्रह्माण्ड का सांकेतिक चित्र पारा 41 से 50 तक 07. अनादिनाद का ही नाम रामनाम, सत्यनाम, ॐकार है, शब्द का गुण, सृष्टि के दो बड़े मंडल, अपरा प्रकृति के चार मण्डल, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के मण्डलों का सम्बन्ध, भिन्न-भिन्न मण्डलों के केन्द्र, अनन्त, अनाम 08. केन्द्रीय शब्दों का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर है, सूक्ष्म शब्द स्थूल में व्यापक तथा विशेष शक्तिशाली होता है, केन्द्रीय शब्दों को पकड़कर सर्वेश्वर तक पहुँच सकते हैं 09. प्रकृति अनाद्या कैसे है ? कैवल्य शरीर चेतन है पारा 51 से 60 तक 10. अनन्त से बढ़कर कोई सूक्ष्म और विस्तृत नहीं हो सकता, अपरिमित परिमित पर शासन करता है 11. अन्तर में चलना परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति है-यही आन्तरिक सत्संग है, मन की एकाग्रता एक विन्दुता है 12. दूध में घी की तरह मन में सुरत है, सृष्टि के जिस मण्डल में जो रहता है, वह वहीं का अवलम्ब लेता है 13. दृष्टि-योग क्या है? दिव्य दृष्टि कैसे खुलती है- 14. शब्द-साधन का मन पर प्रभाव, पंच महापाप, निम्न देशों के शब्द पकड़कर ऊँचे लोकों के शब्द पकड़ सकते हैं पारा 61 से 70 तक 14. शब्द-साधन का मन पर प्रभाव, पंच महापाप, निम्न देशों के शब्द पकड़कर ऊँचे लोकों के शब्द पकड़ सकते हैं 15. सगुण-निर्गुण-उपासना के भेद, उपनिषदों के शब्दातीत पद और श्रीमद्भगवद्गीता के क्षेत्रज्ञ तत्त्व के परे कोई अन्य तत्त्व नहीं है 16. सारशब्द के अतिरिक्त मायिक शब्दों का भी ध्यान आवश्यक है। दृष्टियोग से शब्दयोग आसान है 17. जड़ात्मक प्रकृति मण्डल में सारशब्द की प्राप्ति युक्ति-युक्त नहीं, शब्द-ध्यान भी ज्योति-मण्डल में पहँुचा देता है पारा 71 से 80 तक 18. सारशब्द अलौकिक है । इसकी नकल लौकिक शब्दों में नहीं हो सकती-किसी वर्णात्मक शब्द को सारशब्द की नकल कहना अयुक्त है 19. जो सब मायिक शब्द नीचे के दर्जे में भी सुने जा सकते हैं, वे ही ऊपर दर्जे में भी सुनाई पड़ सकते हैं; इनका अभ्यास भी उचित ही है 20. सूक्ष्म मण्डल के शब्द स्थूल मण्डल के शब्द से विशेष सुरीले और मधुर होते हैं, कैवल्य पद में शब्द की विविधता नहीं है, गुरु-भक्ति बिना परम कल्याण नहीं 21. सद्गुरु की पहचान, उनकी श्रेष्ठता, गुरु के आचरणका शिष्य के ऊपर प्रभाव पारा 81 से 90 तक 21. सद्गुरु की पहचान, उनकी श्रेष्ठता, गुरु के आचरणका शिष्य के ऊपर प्रभाव 22. गुरु की आवश्यकता, गुरु का सहारा 23. गुरु की कृपा का वर्णन, गुरु-भक्ति 24. सन्तमत की उपयोगिता, भिन्न-भिन्न इष्टों की आत्मा अभिन्न है 25. नादानुसन्धान की विधि, यम-नियम के भेद पारा 91 से 100 तक 25. नादानुसन्धान की विधि, यम-नियम के भेद 26. तीन बन्द, ध्यानाभ्यास से प्राण-स्पन्दन का बंद होना 27. मन पर दृष्टि का प्रभाव श्वास के प्रभावसे अधिक है, साधक का स्वावलम्बी होना आवश्यक है 28. मांस-मछली और मादक द्रव्यों का परित्याग आवश्यक है पारा 101 से 107 तक 29. शुद्ध आत्म-स्वरूप अनन्त है, इसका कहीं से आना-जाना नहीं माना जा सकता 30. जीवता का उदय और अन्त, मोक्ष-साधन में लगे हुए अभ्यासी की गति, परम प्रभु की सृष्टि-मौज का केन्द्र में लौटना असम्भव 31. ईश्वर की भक्ति का साधन और मुक्ति का साधन एक ही है 32. परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन 33. ॐकार-वर्णन 34. सगुण-निर्गुण और सगुण-अगुण पर अनाम की उपासनाओं का विवेचन |
पद्य (40)
ईश्वर-स्तुति 01. सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर 02. सर्वेश्वरं सत्य शांति स्वरूपं सद्गुरु-स्तुति 03. नमामी अमित ज्ञान रूपं कृपालं 04. सद्गुरो नमो सत्य ज्ञानं स्वरूपं 05. सत्य ज्ञानदायक गुरु पूरा 06. सम दम और नियम यम दस-दस 07. मंगल मूरति सतगुरु 08. जय-जय परम प्रचण्ड तेज 09. सतगुरु सत परमारथ रूपा 10. जय जयति सद्गुरु जयति जय 11. सतगुरु सुख के सागर शुभ गुण आगर आत्म-स्वरूप 12. प्रभु अकथ अनाम अनामय 13. नहीं थल, नहीं जल, नहीं वायु 14. है जिसका नहीं रंग नहिं रूप उपदेश 15. सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन 16. पाँच नौबत विरतन्त कहौं 17. खोजो पन्थी पंथ तेरे घट भीतरे 18. नित प्रति सत्संग कर ले प्यारा 19. यहि मानुष देह समया में 20. अद्भुत अन्तर की डगरिया 21. सुनिये सकल जगत के वासी 22. समय गया फिरता नहीं 23. सन्तमते की बात कहूँ साधक हित लागी 24. मुक्ती मारग जानते 25. सत्य सोहाता वचन कहिय 26. योग-हृदय वृत्त केन्द्र-विन्दु 27. योग हृदय में वास ना 28. एकविन्दुता दुर्बीन हो 29. योग हृदय-केन्द्र-विन्दु में 30. गुरु हरि चरण में प्रीति हो 31. प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते 32. सुष्मनियाँ में नजरिया थिर होइ 33. जीवो! परम पिता निज चीन्हो 34. सूरति दरस करन को जाती 35. भाई योग-हृदय-वृत्त-केन्द्र-विन्दु 36. मन तुम बसो तीसरो नैना महँ 37. जहाँ सूक्ष्म नाद ध्वनि आज्ञा आज्ञाचक्र आरती 38. अज अद्वैत पूरण ब्रह्म पर की 39. आरती परम पुरुष की कीजै 40. आरती अगम अपार पुरुष की |